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देवब्रत मंडल

एनडीए और महागठबंधन दोनों अपनी जीत को लेकर काफी आशान्वित और आश्वस्त होने के साथ साथ सशंकित भी

File Photo

बिहार में एनडीए ने जो सीट शेयरिंग का फॉर्मूला अपनाया है। उसके अनुसार 17 सीट पर भाजपा, जदयू 16 पर, लोजपा (रामविलास) पांच, एक-एक सीट पर हम (सेक्युलर) और राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) चुनाव लड़ रही है। अब समझने की बात है। RLM नेता उपेंद्र कुशवाहा को भाजपा एक सीट पर समेट कर कुशवाहा समाज के बीच कौन सा खेल खेला है। यह समझने की बात है। बात करते हैं लोजपा(पारस) की तो इनको एक भी सीट नहीं मिला है। चाचा- भतीजा की लड़ाई चाचा पशुपतिनाथ पारस अकेले पड़ गए। इन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया। जबकि इनके भतीजे चिराग पासवान की पार्टी लोजपा (रामविलास) को पांच सीट दिया गया है। बहरहाल, गया संसदीय सीट की बात करते हैं। इस हॉट सीट (क्षेत्र) के लिए 19 अप्रैल को पहले चरण के मतदान में मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। गया में मुद्दों की बात करें तो स्थानीय मुद्दे ज्यादा प्रभावी हैं। राष्ट्रीय स्तर के मुद्दे पर नेताओं के भाषण में भले ही होते हैं लेकिन गया के वोटरों में स्थानीय मुद्दों की चिंता अधिक देखने को मिल रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गया आगमन के बाद उनकी सभा से क्या निकल कर आता है यह भी देखना होगा। इनकी बातों पर गया के मतदाता अपना क्या रुख अपनाते हैं ये मतदान के बाद परिणाम ही बताएगा। वैसे एनडीए और महागठबंधन दोनों अपनी जीत को लेकर काफी आशान्वित और आश्वस्त होने के साथ साथ सशंकित भी हैं। गया के मतदाता क्या फैसला सुनाते हैं। इसके लिए मतगणना तक इंतजार करना होगा।

इनकी जिद कहीं भारी न पड़ जाए

राजनीतिक हलकों में चर्चा यह भी चर्चा है कि हम(से.) के कर्ता-धर्ता पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को एक सीट उनकी ज़िद पर तो एनडीए ने दे दिया लेकिन जिस गया संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं। यहां से लगातार मांझी समाज के ही सांसद चुनाव जीतते आ रहे हैं। यही देखकर एक बार फिर भाजपा-जदयू-लोजपा ने इन्हें ‘दाव’ पर लगा दिया है। जीत गए तो श्री मांझी के साथ साथ हम पार्टी की भी साख बच सकती है। हालांकि इस दल को भाजपा, जदयू, लोजपा एवं अन्य दलों का समर्थन प्राप्त है लेकिन श्री मांझी के चुनावी रणनीतिकार जो सबसे आगे नजर आते हैं वे एक ऐसे वर्ग से आते हैं, जिसके धुर विरोधी पिछड़ा और अतिपिछड़ा जाति से आने वाले परंपरागत रूप से रहे हैं। चुनाव नतीजे आने पर भाजपा-जदयू दोनों इस दल के साथ राजनीतिक दोस्ती रखने के लिए पुनर्विचार करते हुए कुछ भी कर सकती है। हालांकि गया संसदीय क्षेत्र के चुनाव प्रचार में दोनों गठबंधन के नेताओं के आने का सिलसिला चल रहा है। इसी क्रम में श्री मांझी के समर्थन में 16 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी आने वाले हैं। वहीं जातीय समीकरण बैठाने के लिहाज से एनडीए के नेता यथा, सम्राट चौधरी, चिराग पासवान, नीतीश कुमार आदि के अलावा देश के गृहमंत्री तक यहां आ चुके हैं। जिसका असर मतदाताओं पर कितना पड़ता है ये नतीजे सामने आने के बाद ही पता चल सकता है। वर्तमान सांसद विजय मांझी किसी चुनावी सभा में नजर नहीं आ रहे हैं। भाजपा से टिकट मिलने की आस लगाए पूर्व सांसदों की भी उतनी सक्रियता नजर नहीं आ रही है जितनी कि सीट के बंटवारे के पहले तक देखने को मिल रहे थे।

कुशवाहा समाज को साधने की कोशिश

इधर, यहाँ महागठबंधन ने पासवान जाति से आने वाले कुमार सर्वजीत को टिकट दिया है। राजद का परंपरागत वोटर यादव, मुसलमान, कांग्रेस के परंपरागत वोटर्स, वाम दलों के कैडर के अलावा, मांझी के पिछले दिनों आए कुछ बयानों को लेकर जो ब्राह्मण नाराज हैं जिसका फायदा राजद को मिलने की बात लोग कह रहे हैं। वहीं कोइरी समाज जिसमें कुशवाहा दांगी दोनों आते हैं जो इस बार कुछ अलग ही तरीके से वोट करेंगे। एक तरफ भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी को इस समाज के लोग देख रहे हैं तो इस समाज के लोग टिकट बटवारा में इस जाति के लोग भी देख रहे हैं कि एनडीए ने इस समाज के लोग को कितना महत्व दिया है। इस बाबत पूछे जाने पर मोहन कुशवाहा कहते हैं समाज में निर्णय हो चुका है। ऐसे में कुछ और ही सोच कर वोट करने का मन बना रहे हैं। वैसे भी इस समाज से आने वाले मतदाता राष्ट्रीय स्तर की राजनीति से अधिक अपने समाज के लोगों की हितों को लेकर वोट करते हुए आए हैं।

पासी समाज स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे

वहीं देखा जाए तो जिले में (चौधरी) यानी पासी जाति का एक बड़ा वोट बैंक है गया संसदीय क्षेत्र में। ईश्वर चौधरी और कृष्ण कुमार चौधरी यहां के सांसद रह चुके हैं। इन दोनों के निधन के बाद भाजपा ने मानो इस समाज से आने वाले नेताओं को तो क्या समाज के लोगों को तरज़ीह देना छोड़ दिया। इस जाति से आने वाले एक युवक चंदन चौधरी कहते हैं भाजपा वाले तो हम लोगों को नजरअंदाज किया है। कहते हैं कि आज उनका समाज स्वयं को राजनीतिक रूप से उपेक्षित महसूस कर रहा है। जबकि गया लोकसभा क्षेत्र में इनके भी वोट किसी भी दल के प्रत्याशी के लिए बड़ा मायने रखता है। इस जाति के लोग पक्ष या विपक्ष में वोट कर निर्णायक भूमिका निभाते आए हैं। हालांकि अलग अलग विधानसभा चुनाव क्षेत्र में ये आज की तिथि में अलग अलग दल के साथ नजर आते हैं लेकिन जब इनकी जाति से प्रत्याशी दिया गया था तो एकजुट होकर मतदान करते हैं।

जातीय समीकरण में इन सभी की भी भूमिका महत्वपूर्ण

अब बात कुछ जातीय समीकरण की करते हैं। यहां कुर्मी, चंद्रवंशी, कुम्हार, पटवा, रविदास, नाई, धोबी, मल्लाह, भूमिहार, राजपूत, कायस्थ आदि के अलावा कई पिछड़ी जातियों के वोटर भी अपनी सूझबूझ से वोट करते आए हैं। ये सभी अपनी जाति के हितों को पहले देखते हैं। हालांकि गया शहरी क्षेत्र में कायस्थ समाज दो भाग में बंटे हुए हैं। सबसे बड़ी बात है कि ये लोग किसी के बहकावे में आकर वोट नहीं करते हैं। हैं। ये किसी पार्टी के बंधन में नहीं होते हैं। कुछ अपवादों की बात करें तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कारण कुर्मी को जदयू का समर्थक माना जाता हैं जैसे यादव को लालू समर्थक। लेकिन इसमें पूरी सच्चाई नहीं नजर आती है। बात भूमिहार, राजपूत और चंद्रवंशी की करें तो विवेक के साथ साथ परिस्थितियों के अनुसार वोट करते हैं। इन सभी जाति के वोटरों की संख्या गया संसदीय क्षेत्र में अच्छी खासी है। जो अलग अलग दलों के साथ हैं और अपने अपने विवेक से मतदान करते हुए किसी भी प्रत्याशी को जीत हार दोनों के लिए सोच समझकर वोट करते हैं।

वैश्य समाज का वोट भी मायने यहां रखता है

वहीं गया में वैश्य समाज से आने वाली विभिन्न जातियों के लोग अपने अपने समाज के लोगों के साथ बैठकें कर चुके हैं। कुछ लोगों ने अपना निर्णय भी मीडिया के माध्यम से सुना चुके हैं कि इस बार किनको वोट करने जा रहे हैं। वैसे देखने को मिलता आया है कि अधिकांश एनडीए गठबंधन के साथ रहते हैं लेकिन काफी लोग ऐसे भी हैं जो एनडीए के खिलाफ वोट करते हैं।

स्थानीय मुद्दे बनाम राष्ट्रीय स्तर के मुद्दे

एक बात जो सबसे अधिक मायने रखता है कि गया जिले के नौ विधानसभा क्षेत्र में अबतक हुई चुनावी रैली या जनसंपर्क अभियान में एक बात जो देखने को मिल रहा है वो ये कि सभी दलों के नेता राष्ट्रीय स्तर पर अपनी बातों को रखते हुए अपने अपने पक्ष के उम्मीदवार को वोट करने के लिए अपील कर रहे हैं लेकिन यहां राष्ट्रीय स्तर के मुद्दे उतने प्रभावित नहीं कर रहे हैं जितने कि स्थानीय मुद्दे। मतदाता स्थानीय मुद्दे को सबसे पहले देख रहे हैं बाद में राज्य और राष्ट्र के बारे में कुछ सोच रहे हैं।