टिकारी संवाददाता: बिहार के इतिहास में 12 फरवरी 1992 की रात एक भयावह घटना के रूप में दर्ज है, जब नक्सली आतंक का कहर बारा गांव पर टूटा था। एक ही रात में 35 निर्दोष लोगों को घरों से निकालकर नहर किनारे गला रेतकर मौत के घाट उतार दिया गया था। इस लोमहर्षक नरसंहार की 33वीं बरसी पर बुधवार को गया जिले के वर्तमान अलीपुर थाना क्षेत्र अंतर्गत बारा गांव स्थित शहीद स्मारक स्थल पर श्रद्धांजलि सह शहादत समारोह का आयोजन किया गया।

खून से रंगी थी बारा की धरती

उस मनहूस रात को नक्सली संगठन एमसीसी (माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर) के हथियारबंद दस्ते ने गांव को चारों तरफ से घेर लिया। सवर्ण जाति के पुरुषों को जबरन घरों से बाहर निकाला गया और नहर के किनारे ले जाकर बर्बर तरीके से एक-एक कर 35 लोगों की गला रेतकर हत्या कर दी गई। इसके बाद गांव में आगजनी भी की गई, जिससे मातम और भय का साया लंबे समय तक बारा गांव पर मंडराता रहा। यह वह दौर था जब बिहार जातीय हिंसा की आग में जल रहा था और यह नरसंहार उसकी सबसे भयावह घटनाओं में से एक बन गया।

शहीदों को दी गई श्रद्धांजलि, स्वजनों के छलके आंसू

33 साल बाद भी बारा के लोगों के दिलों में उस रात का खौफ जिंदा है। नरसंहार के शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए गांववासियों के सहयोग से श्रद्धांजलि सह शहादत समारोह आयोजित किया गया। स्मारक स्थल पर हवन, पूजन और पुष्पांजलि के साथ कार्यक्रम की शुरुआत हुई। मृतकों के परिजनों ने सामूहिक रूप से हवन-पूजन कर दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए प्रार्थना की। इसके बाद दो मिनट का मौन रखकर शहीदों को श्रद्धांजलि दी गई।

शहादत स्थल पर जब मृतकों के स्वजनों ने अपने प्रियजनों की तस्वीरों पर फूल चढ़ाए, तो कई लोगों की आंखें छलक पड़ीं। दर्द, पीड़ा और अपनों के खोने का गम आज भी जिंदा था। श्रद्धांजलि देने वालों में कुलिंता देवी, बिंदु देवी, श्रद्धा देवी, गौरी देवी, इग्लेश देवी, बिमला देवी, राजमनी देवी, उम्दा देवी, चंचला देवी, मदन शर्मा, सतेन्द्र कुमार शर्मा, राकेश सिंह, ब्रजेश कुमार, धनंजय शर्मा, सतेन्द्र कुमार, अनिल कुमार, उद्रेश कुमार, नन्दकिशोर, सुमिरन शर्मा, संजीत कुमार, अरविंद कुमार सहित कई अन्य लोग शामिल थे।

11 परिवारों को नहीं मिली सरकारी नौकरी, वादों पर पड़ी धूल

घटना के बाद तत्कालीन सरकार ने पीड़ित परिवारों को नौकरी और आर्थिक सहायता देने की घोषणा की थी। हालांकि, आज भी 11 परिवार ऐसे हैं जिन्हें इस योजना का लाभ नहीं मिला। हर चुनाव के समय यह मुद्दा उठता है, लेकिन चुनावी वादों की चकाचौंध में यह दर्दनाक त्रासदी फिर से भुला दी जाती है। पीड़ित परिवारों के लिए यह केवल नेताओं के वादों की खेती बनकर रह गई है, जिससे अब तक केवल निराशा, तनाव और अवसाद की फसलें ही उपजती रही हैं।

33 साल बाद भी कायम है दर्द की चिंगारी

समय के साथ बारा नरसंहार पर भूलने की राख जरूर जम गई है, लेकिन पीड़ा की चिंगारी आज भी सुलग रही है। पीड़ित परिवारों के दिलों में आज भी वह भय, दुख और त्रासदी का एहसास जिंदा है। राजनीति और प्रशासन की उदासीनता ने इन परिवारों के जख्मों को और गहरा कर दिया है।

इस नरसंहार को तीन दशक से ज्यादा हो चुके हैं, लेकिन न्याय और पुनर्वास की लड़ाई अभी भी अधूरी है। बारा के शहीदों की शहादत आज भी इंसाफ की मांग कर रही है।

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