लाइव मगध संवाददाता आलोक रंजन

दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ० राजेश कुमार रंजन द्वारा गया के प्रमुख जलाशयों पर किए गए शोध कार्य को अंतर्राष्ट्रीय जर्नल-एल्सेवियर ने प्रकाशित किया है। डॉ. रंजन के शोध लेख को ‘इम्पैक्ट ऑफ अर्बनाइजेशन ऑन हाइड्रोजीओकेमिस्ट्री एंड ट्रेस मेटल डिस्ट्रीब्यूशन ऑन फाइव मेजर पोंड्स इन द होली सिटी ऑफ गया’ शीर्षक के साथ छापा गया है। उन्होंने बताया कि डॉ० रंजन एवं उनके शोद्यार्थियों की टीम द्वारा क़रीब दो वर्षों तक इस अहम परियोजना पर शोध किया गया जिसमें अलविया असलम, शौरभ कुमार सिंह और मिलटू रॉय शामिल थे।
एल्सेवियर जर्नल में शोध लेख प्रकाशित होने पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए डॉ० रंजन ने कहा कि हालाँकि लेख छपना एक सुखद अनुभव होता है। लेकिन इसके परिणाम काफी चिंताजनक हैं। गया शहर और आसपास के इलाकों पर इस अहम मुद्दे पर किए गए शोध कार्य ने एल्सेवियर – ग्राउंडवाटर फॉर सुस्टेंबल डेवलपमेंट में अपनी जगह बनाई है और शोध के परिणामों पर सबको प्रमुखता से ध्यान देने की आवश्यकता हैं। मैंने अपनी टीम के साथ 2018 से इस विषय पर शोध करना प्रारंभ किया। गया के बिसार, दिघी, वैतरणी, रामसागर और सूर्यकुंड के जल के नमूनों को इकठ्ठा कर विवि के प्रयोगशाला में अध्ययन किया। इस अध्ययन में हमने वर्तमान में जल की गुणवत्ता को आंकने के साथ – साथ गया क्षेत्र के जलाशयों में समय के साथ होने वाले परिवर्तन, उत्क्रांति पर भी खास ध्यान दिया। जलाशयों के जल की गुणवत्ता का कई बार अध्ययन करने पर हमें काफी निराश करने वाले परिणाम मिले और शोध से ये निष्कर्ष निकला कि गया शहर और आसपास के इलाकों में स्तिथ जलाशयों का पानी पीने लायक नहीं हैं। डॉ० रंजन ने कहा इन जलाशयों में जल को प्रदूषित करने वाले कई कारक पाए गए है। जिनमें कूड़े के साथ – साथ पितृपक्ष या दूसरे धार्मिक आयोजनों में बड़ी संख्या में सैलानियों एवं श्रृद्धालुओं का जमावड़ा भी है। उन्होंने कहा कि गया के इन जलाशयों में ट्रेस मेटल प्रदुषण का ख़तरा मंडरा रहा है। समय रहते प्रशासन व सम्बंधित विभाग द्वारा आवश्यक क़दम नही उठाया गया तो गया शहर और आसपास के जलाशयों को आने वाले समय में हम खो देंगे। बढ़ते प्रदुषण से जहाँ पर्यावरण अस्थिर होगा वहीँ इससे आम नागरिकों के साथ -साथ जीव – जंतुओं पर बुरा असर पड़ सकता है। साथ ही गया क्षेत्र के जलाशयों में पाई जानेवाली जैव विविधता भी समाप्त हो सकती है।